मा किंचित्त्यज मा गृहाण विहर स्वस्थो यथावस्थितः। (अनुत्तराष्टिका, 2)
न किसी का त्याग करो, न किसी का ग्रहण, स्वस्थ और यथावस्थित होकर आनन्द करो।
- महामहेश्वर श्रीमद् अभिनवगुप्तपादाचार्य 🌺
भारत-बोध की खोज में...
। शोधार्थी (जे.ऐन.यू.) । हिमाचलवासी । विस्थापित (पाक अधिक्रांत जम्मू) ।
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